Thursday, December 18, 2014

Roshi: Roshi: जख्म माँ के ..

Roshi: Roshi: जख्म माँ के ..: Roshi: जख्म माँ के .. : गहरी निद्रा के आगोश में सोये मासूम नौनिहालों को डांट-डपटकर झटपट माँ ने किया होगा तैयार ,लंच -बॉक्स को वक्त पर खाने ...
गहरी निद्रा के आगोश में सोये मासूम नौनिहालों को डांट-डपटकर
झटपट माँ ने किया होगा तैयार ,लंच -बॉक्स को वक्त पर खाने की नसीहतें
भी दी होंगी हज़ार ,मुस्कराता वो चेहरा ,बाय-बाय करती वो गूँज आज करती
दिल की किरचें हज़ार ,वो लख्तेजिगर जो गया था अभी विद्यालय जाने को बाहर
उन आततायियों का कलेजा ना पसीजा एक बार भी उन मासूम फूलों को देख
खिलने से पहले ही रौंद डाला उन जल्लादों ने ,इंसानियत को किया शर्मसार
क्या गुजरी होगी उस माँ पर जो खाने की थाली संजोये तक रही थी राह अपने लाडले की
पर ना आया वो मासूम आई थी उसकी छत -बिचत देह जो काफी थी चीरने को कलेजा बाप का ,क्यूंकि अब ना था वो मासूम अपनी जिद्देँ पूरी करवाने को अपने बाप से
रीता कर दिया था घर आँगन उन जेहादियों ने कितने ही घर परिवारों का
एक पल ना सोचा कि मारा तो उन्होंने दोनों तरफ माओं को
एक तरफ मरी बेमौत उन मासूमों की माएं ताउम्र
और दूसरी तरफ उन जेहादियौं की अपनी माएं क्यूंकि इंतज़ार तो वो भी
कर रही थी अपने बच्चों का ,जना तो उन्होंने अपनी कोख से सिर्फ बच्चा ही था
ज़माने ने उनको बनाया था जेहादी ,किया था जिन्होंने कोख को शर्मसार
एक तरफ थे मारनेवाले बच्चे और एक तरफ मरने वाले बच्चे
जख्म तो खाए दोनों तरफ सिर्फ और सिर्फ माँ ने ,सिर्फ माँ ने

Wednesday, October 15, 2014

परिवर्तन

बिदाई की बेला में जानकी को दीं थीं ढेरों नसीहतें माँ और तात ने
वास्ता दिया था निभाने को दोनों कुल की मर्यादा और पति का साथ
निभाया भी था जानकी ने ,कर गईं वनगमन बिना वाद्प्रतिवाद के
युवराज को तनिक भी एहसास ना हुआ उस नव्व्याही वधु के सपनों ,अरमानों का
माँ के वचनों की शायद ज्यादा एहमियत लगी थी सुकुमार को
पर उन वचनों का क्या ?जो वेदी पर लिए थे अग्नि को साक्षी मानकर
वन में ना बचा पाए  कुंवर निज सुता का अस्तित्व
बाँध गए मात्र एक सूक्ष्म सी लक्ष्मणरेखा के दायरे में
क्या -क्या ना वरपा उस मासूम पर उस दारुण वन में
कैसे की होगी अपने सतीत्व की रक्षा ,उन अमानुषों में
कल्पना मात्र से ही सिहर उठता है तन और मन
क्या किस्मत लिखवा कर लायी थी जनकसुता
अभी देखने थे और दारुण दुःख उस सुकुमारी को
निभाए जा रही थी जो मैथिली और अयोध्या की परम्पराओं को
तनिक भी हठ ना किया और निभाती रहीं पत्नीधर्म
यूं ही किसी के कहने मात्र से कर दी गयी वो बेघर
ना जाने से होता उनके पति की मर्यादा का हनन ,निशब्द त्याग दिया घर -आँगन
उस प्रसूता को घर से निकाल निभाई कौन सी मर्यादा यह ना जान सके हम
पर अब सीता ने भी जीना सीख लिया है ,उस लक्ष्मण -रेखा को लांघना भी लिया है सीख
अपनी सफाई में कहने को हैं आज उसके पास कुछ सबूत ,बरसों झेला है उसने वनवास
बेबजह झेली है रुसवाई उसने क्यूंकर ओढ़े रहे मायूसी का दामन
और क्योँ दे वो निरपराध अग्निपरीक्षा या समा जाये वेवजह धरती में
मु श्किलों ने कर दिया है अब उसका हौसला बुलंद ,.......
जमीं और आसमां दोनों  हैं अब उसकी मुट्ठी में ,ना कि उसमें समां जाने को ..........